Wednesday, May 8, 2024
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दो मेंढकों की यात्रा : जापानी लोक-कथा

Do Mendhakon Ki Yatra : Japanese Folktale

कई वर्ष पूर्व जापान में दो मेंढक रहते थे। उनमें से एक मेंढक ओसाका के पास एक खड्डे में रहता था। जबकि दूसरा मेंढक क्योटो के पास बहने वाली एक नदी में निवास करता था।

एक दिन उन दोनों मेंढकों के दिमाग में एक साथ एक विचार आया। उन्होंने सोचा, ‘इस जगह पर रहते हुए हमें बहुत दिन हो गए हैं। अब हमें यहां से निकलकर बाहर का संसार भी देखना चाहिए।’

यह संयोग ही था कि क्योटो के पास रहने वाले मेंढक ने ओसाका जाने का निश्चय किया जबकि ओसाका में रहने वाले मेंढक ने क्योटो जाने का निर्णय किया।

अगले ही दिन दोनों ही मेंढक को ने अपनी-अपनी यात्रा प्रारंभ कर दी। क्योटो और ओसाका शहरों को जोड़ने वाला एक ही मार्ग था। दोनों ही मेंढक उसी मार्ग पर अपनी-अपनी मंजिल की ओर चल दिए।

मार्ग में एक स्थान पर दोनों मेंढको की भेंट हो गई। उन्होंने एक-दूसरे से हाथ मिलाया और फिर आपस में बातचीत करने लगे। तभी ओसाका के मेंढक ने क्योटो के मेंढक से पूछा, “तुम कहां जा रहे हो, मित्र?”
क्योटो के मेंढक ने उत्तर दिया, “मैं ओसाका जा रहा हूं।”
यह सुनते ही ओसाका का मेंढक प्रसन्न होकर बोला, “क्या बात है! मैं क्योटो जा रहा हूं।”

दोनों ही मेंढक चलते-चलते बहुत थक चुके थे, इसलिए उन्होंने थोड़ा आराम करने का निश्चय किया। फिर वे पास ही स्थित एक बड़ी चट्टान की छाया में जा बैठे।

तभी ओसाका का मेंढक बोला, “कितना अच्छा होता, अगर हमारा आकार थोड़ा बड़ा होता।”
क्योटो के मेंढक ने आश्चर्य से पूछा, “आकार बढ़ने से क्या होता?”

ओसाका के मेंढक ने उत्तर दिया, “तब हम आसानी से किसी पहाड़ पर चढ़कर उन शहरों को देख लेते, जहां हम जा रहे हैं। फिर हमें यह भी पता लग जाता कि वे शहर देखने लायक है भी या नहीं!”
यह सुनकर क्योटो का मेंढक बोला, “इसमें कौन-सी बड़ी बात है? यह कार्य तो हम अभी भी कर सकते हैं।”
“वह कैसे?” ओसाका के मेंढक ने आश्चर्य से पूछा।

क्योटो के मेंढक ने उसे समझाते हुए कहा, “यह कार्य तो बहुत आसान है। यदि हम पास के पहाड़ पर चढ़कर एक-दूसरे का सहारा लेते हुए अपने पिछले पैरों पर खड़े हो जाएं तो फिर हम आसानी से उन शहरों को देख सकेंगे, जहां हम जाना चाहते हैं।”

ओसाका का मेंढक क्योटो की झलक देखने के लिये इतना उत्सुक था कि वह दौड़कर पास के पहाड़ पर चढ़ने लगा। यह देखकर क्योटो का मेंढक भी उसके पीछे दौड़ा। फिर वे दोनों उछलते-उछलते पास में ही स्थित एक पहाड़ के शिखर पर जा पहुंचे।

दोनों मेंढक अपनी लंबी यात्रा के कारण बहुत थका हुआ अनुभव तो कर रहे थे, लेकिन उन्हें इस बात की खुशी भी थी कि वे उन शहरों को देख सकेंगे, जिन्हें देखने के लिए वे लंबी यात्रा करके वहां तक आए थे।

पहाड़ के शिखर पर पहुंचने के बाद ओसाका के मेंढक ने उछलकर अपने अगले पैरों को अपने मित्र के कंधों पर रख दिया। क्योटो के मेंढक ने भी ऐसा ही किया। अब दोनों मेंढक अपने पिछले पैरों पर खड़े थे और उनके अगले पैर एक-दूसरे के कंधों पर थे। उन्होंने एक-दूसरे को कसकर पकड़ रखा था ताकि वे पहाड़ से नीचे ना गिर जाए।
लेकिन उन दोनों ने एक बात की ओर ध्यान ही नहीं दिया था। उन्होंने अपनी पीठ उन्हीं शहरों की ओर कर रखी थी, जिन्हें वे देखना चाहते थे।

इस प्रकार दोनों मेंढको के गलत तरीके से खड़े होने के कारण ओसाका से आया हुआ मेंढक ओसाका को ही देख रहा था जबकि क्योटो के मेंढक की नजर क्योटो पर ही पड़ रही थी। इस प्रकार दोनों ही मेंढक अपने प्रिय शहरों को नहीं देख पा रहे थे।

तभी ओसाका का मेंढक बोला, “ओह! लगता है, मैंने यहां तक आकर अपना समय ही नष्ट किया है। क्योटो तो बिल्कुल ओसाका की तरह ही दिखता है।” क्योटो से आए मेंढक को भी अनुभव हो रहा था कि ओसाका भी क्योटो की तरह ही है। फिर दोनों मेंढक अपने-अपने घर लौट गए।

(शैलेश सोलंकी)

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